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- 9 - Tantra vidya
https://dharma-basics.blogspot.com/2021/07/blog-post_27.html https://dharma-basics.blogspot.com/2021/07/blog-post_15.html https://dharma-basics.blogspot.com/2021/07/blog-post_57.html तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।तंत्रिका कोशिका।। तंत्र क्या है!तंत्र--एक कदम और आगे। नाभि से जुड़ा हुआ एक आत्ममुग्ध तांत्रिक। तंत्र कहते ही तांत्रिक मन में आता है, एक अर्ध पागल सा बड़बड़ाता हुआ व्यक्ति। तंत्र का मतलब होता है व्यवस्था, तंत्रिका तंत्र,गणतंत्र, लोकतंत्र, स्नायु तंत्र, तो यहां जो बात हो रही है वह है शरीर विज्ञान की। साथ में आत्मा भी, क्योंकि ज्ञान का बोध करने वाली तो वही है न बन्धु। एक मित्र है वे आज पूछ रहे थे कि जग्गी वासुदेव कहते हैं शरीर मरने के 3-4 घण्टे बाद तक भी शरीर में व्यान प्राण रहता है, मरने के 12-13 घण्टे बाद भी उदान प्राण रहता है, अगर सही से तांत्रिक क्रियाएं की जाएं तो व्यक्ति को जीवित किया जा सकता है,,आपकी क्या राय है?? कोई क्या कहते हैं और किस आधार पर ये वे खुद जानें, मैं सिर्फ ऋषियों पर भरोसा करता हूँ या ऋषिकृत शास्त्रों पर। अपने पूर्वज ऋषियों ने कुछ अलग ही बताया है, महर्षि योगसूत्रों में कह रहे हैं-- नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम--नाभिचक्र में ध्यान लगाने से योगी शरीर संरचना को भली भांति जान लेता है,, नाभि में जो चक्र है उसका नाम है मणिपुर चक्र, कपालभाति जो क्रिया है वह उसी को तो सबसे ज्यादा जल्दी एक्टिवेट करती है जिसे आजकल बाज़ार में कुंडलिनी जागरण के नाम से बेचा जा रहा है, खैर अपना विषय अलग है। मैंने सैकड़ों स्कूल कालेजों में बच्चों से पूछा है,, तथाकथित तांत्रिकों से भी, ये बताइए महाराज शरीर में कितनी चीजें हैं जो धड़कती हैं, बताने वाले सबसे पहले हृदय बताते हैं, फिर नाड़ी बताते हैं। हाथ की जिसे नस भी कह दे रहे हैं, लेकिन नाड़ी तो रक्त और हृदय के आधार पर धड़कती है उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, फिर और क्या है जो धड़कता है?? इस बात पर तांत्रिक महोदय गांजे की चिलम खींचकर मुझे घूरने के अलावा कुछ नहीं करते हैं। दूसरी चीज जो शरीर में धड़कती है वो नाभि है। हरियाणा में उसे धरन भी कहते हैं। गाँव देहात में किसी को पेट में दर्द हो मरोड़ उठ रहे हो तो बड़े बूढ़े कहते हैं धरन दिखा लो, वही डिगी हुई है, नाभि पहला पार्ट है जो मां के गर्भ में आने के बाद हमारे शरीर में बनता है। धड़कन भी उसी में पहले शुरू होती है। लोग उदान प्राण की बात कह रहे हैं जबकि नाभि में जहां से जीवन शुरू होता है वहां अपान प्राण होता है। अब चूंकि जहां से जीवन शुरू हुआ है वहीं जाकर खत्म होगा तभी एक जीवनचक्र पूरा होगा। इसलिए कई बार लोग मर जाते हैं तो श्मशान ले जाते समय या कोई उनपर हाथ पटक पटक कर रोए उस समय या अर्थी को चिता पर रखते समय जीवित हो जाते हैं। कारण मात्र इतना ही है कि प्राण जो सिकुड़कर नाभि में इकट्ठा हो गया था वह किसी झटके से फिर से चालू हो जाता है। पूरे शरीर में जीवन ऐसे फैल जाता है जैसे तारों में बिजली, व्यक्ति जी उठता है। इसलिए तांत्रिक यानी शरीर विज्ञान को जानने वाला, अगर इसमें सिद्धहस्त है।तो मरे हुए व्यक्ति की हाथ की नाड़ी को नहीं देखेगा, न हृदय को देखेगा, न सांस चल रही है या नहीं, इसको भी नहीं देखेगा, यह बच्चों के काम हैं। वह देखेगा नाभि को छूकर, अगर वह धड़क रही है, यानी उसमें अभी प्राण हैं तो व्यक्ति को वहां झटका देकर जिंदा किया जा सकता है, इसके सफल होने के प्रतिशत ज्यादा हैं। यही तंत्र है। शरीर विज्ञान का परम ज्ञाता होना, साथ में आत्मा का भी, भूत प्रेत या झाड़ फूंक वालों को तांत्रिक कहना घोर अज्ञानता है।इसलिए योगी ही असली तांत्रिक हो सकता है। क्योंकि वह शरीर विज्ञान को भली भांति जानता है, या यूं कहें जो तांत्रिक है वह अवश्यमेव योगी होगा ही, वरना जानेगा कैसे। मैं तो बस इतना ही जानता हूँ, बाकि किसी जानकार से पता करोगे तो और अच्छे से समझा पाएगा। ॐ श्री परमात्मने नमः। *सूर्यदेव*
Sat, 05 Aug 2023 - 04min - 8 - Jaikaal Mahakaal Vikraal ShambhuSun, 26 Feb 2023 - 02min
- 7 - हनुमान जी की पूर्ण कृपा के लिए केवल एक काम करें। श्री शिव चालीसा।
https://shrimadbhagwadmahapuran.blogspot.com/2022/11/shreeshivchalisa.html श्री शिव चालीसा / चालीसा दोहा अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार। बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार।। 1।। आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति-मुक्ति-दातार। करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार।। 2।। पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार। सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार।। 3।। पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार। ढरौ तुरंत स्वभाववश, नेक न करौ अबार।। 4।। जय शिव शंकर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी ।। 1 ।। सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर।। 2 ।। सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता।। 3 ।। पराशक्ति-पति अखिल विश्वपति। परब्रह्म परधाम परमगति।। 4 ।। सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निजस्वरूप महिमा में स्थितरत।। 5 ।। अंगभूति-भूषित श्मशानचर। भुंजगभूषण चन्द्रमुकुटधर।। 6 ।। वृष वाहन नंदी गणनायक। अखिल विश्व के भाग्य विधायक।। 7 ।। व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर।। 8 ।। कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत।। 9 ।। तनु कर्पूर-गौर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उत्तम।। 10 ।। भाल त्रिपुण्ड मुण्डमालाधर। गल रूद्राक्ष-माल शोभाकर।। 11 ।। विधि-हरी-रूद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी।। 12 ।। तुम हो नित्य दया के सागर। आशुतोष आनन्द-उजागर।। 13 ।। अति दयालु भोले भण्डारी। अग-जग सब के मंगलकारी।। 14 ।। सती-पार्वती के प्राणेश्वर। स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर।। 15 ।। हरि-हर एक रूप गुणशीला। करत स्वामि-सेवक की लीला।। 16 ।। रहते दोउ पूजत पूजवावत। पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत।। 17 ।। मारूति बन हरि-सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही।। 18 ।। जग-हित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकण्ठ वर।। 19 ।। असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर।। 20 ।। ‘नमः शिवायः’ मंत्र पंचाक्षर। जपत मिटत सब क्लेश भयंकर।। 21 ।। जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। तिनको शिव अति करत परमहित।। 22 ।। श्रीकृष्ण तप कीन्हो भारी। भये प्रसन्न वर दियो पुरारी।। 23 ।। अर्जुन संग लड़े किरात बन। दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन।। 24 ।। भक्तन के सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे।। 25 ।। शंखचूड़ जालंधर मारे। दैत्य असंख्य प्राण हर तारे।। 26 ।। अन्धक को गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों।। 27 ।। तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। बाणासुर गणपति गति कीन्हीं।। 28 ।। अष्टमुर्ति पंचानन चिन्मय। द्वादश ज्योतिर्लिंग ज्योतिर्मय।। 29 ।। भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा।। 30 ।। काशी मरत जंतु अवलोकी। देत मुक्ति पद करत अशोकी।। 31 ।। भक्त भगीरथ की रूचि राखी। जटा बसी गंगा सुर साखी।। 32 ।। रूरू अगस्तय उपमन्यू ज्ञानी। ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी।। 33 ।। शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। शिवहिं परमप्रिय लोकोद्धारक।। 34 ।। इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। देत मुदित हृै अति दुर्लभ वर।। 35 ।। अति उदार करूणावरूणालय। हरण दैन्य-दारिद्र्य-दुःख-भय।। 36 ।। तुम्हरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र सब ही अधिकारी।। 37 ।। बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलभ्य शिवपद को पावहिं।। 38 ।। भेदशून्य तुम सब के स्वामी। सहज-सुहृद सेवक अनुगामी।। 39 ।। जो जन शरण तुम्हारी आवण। सकल दुरित तत्काल नशावत।। 40 ।। दोहा बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार। गनौ न अघ, अघ जाति कछु, सब विधि करौ संभार।।1।। तुम्हरो शील स्वाभव लखि, जो न शरण तव होय। तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नही कुभाग्य जन कोय।।2।। दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार। कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करौ पाप सब क्षार।।3।। कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करौ पवित्र। राखौ पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र।।4।।
Tue, 21 Feb 2023 - 04min - 6 - Shrimad Bhagwad Mahapuran Mangla charan
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Sat, 12 Jun 2021 - 01min - 5 - हिन्दु धर्म में आहार
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Fri, 02 Apr 2021 - 01min - 4 - श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ५] (भवावटी की प्रकृति अर्थ वर्णन)
श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ५] (भवावटी की प्रकृति अर्थ वर्णन) दो०-रूपक धरि कहि जड़ भरत, राजा दियौ समझाय। भिन्न भिन्न कर सब कहयौ, चौदहवें अध्याय ।। श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब जड़ भरत ने राजा रहूगण को इस प्रकार एक रूपक सुनाकर ज्ञान दिया तो, हाथ जोड़कर राजा रहूगण विनय बचन कह जड़ भरत से बोला- --महाराज ! आपके इस कथन को सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह बंजारा समूह इतना बलिष्ठ होकर भी जिसके पास धन आदि सब कुछ है फिर चोरों से लुटता है और सबके सब मार्ग भूल बन में भटकते फिरते हैं, तथा एक-एक कर के कुये में गिरकर प्राणों की रक्षा का ध्यान न करके उस एक बूँद मधु का आनन्द पाकर मृत्यु को भूल जाता है। सो यह प्रसंग आप मुझे पूर्णरूप से भिन्न-भिन्न करके समझाइये । वह बंजारा अपने को बचाने के लिये डाली को पकड़कर ऊपर क्यों न चढ़ आया और उस मधु का लोभ क्यों न त्यागा? रहूगण के यह बचन न जड़ भरत ने कहा- हे राजन ! ऐसी ही दशा जैसी कि उस बंजारे के समूह की है, तुम्हारी और अन्य सभी संसारी मनुष्यों की भी है। सब मनुष्य हर प्रकार के उद्यम करने पर भी संतोष नहीं करता और अधिक से अधिक लोभ बढ़ता जाता है, और परिणाम यह है, कि वह इस संसार चक्र से छूटने के लिये दो घड़ी का समय निकाल कर अपने पैदा करने वाले परमात्मा का स्मरण तक भी नहीं करता है। जब कभी कोई उसे उपदेश करता है कि भाई ! तुम कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन तो कर लिया करो। तब वह तपाक से यही कहता है कि क्या करें भाई काम काज से इतना समय ही नहीं मिलता हैं कि भगवान का दो घड़ी भर भजन करे। ॥ सो हे राजा रहूगण ! मैंने तुम्हें जो रूपक सुनाया है वह इसी प्रकार जानो कि यह समस्त जीव समूह बंजारा समूह ही जानो जोकि धनोपार्जन करने के लिये संसार रूप मार्ग में चल पड़ा है। तब वह मार्ग में वन में जाके फँस जाता है अर्थात, वह अपने शरीर के द्वारा रचे हुये कमों का फल भोगने में व्यस्त हो जाता है। फिर भी वह ऐसे उद्योग करता रहता है कि इस झंझट में पड़ कर लाभ करे परन्तु हानि करके और झंझटों में फंसता रहता है । तब भी वह उन दुखों से छुटकारा पाने के लिये ईश्वर को स्मरण नहीं करता है। अर्थात भक्ति मार्ग पर नहीं चलता है। वह सब इसलिये नहीं कर पाता है कि हमने कहा है कि उन बन्जारों को लूटने के लिये छः बलवान चोर पीछे लग जाते हैं। अर्थात यों समझिये कि उस जीव समूह को लूटने वाली वे छः इन्द्रियाँ हैं जो चोर का काम करने वाली हैं। जो संसार मार्ग में भेड़िये आदि कहे हैं, सो पुत्रादि कुटुम्बीजन हैं, जिनके द्वारा सब कुछ हरण होने पर भी मनुष्य अपना मोह नहीं छोड़ता है। हमने जो डाँस मच्छर आदि बन के बीच दुख देने वाले कहे हैं सो वह मनुष्य साधु-जनों का संग छोड़ कर नीच पुरुषों के साथ रहकर दुष्ट कर्म करते हैं। सो इन सब उपद्रवों से युक्त हुआ मनुष्य अनेक दुखों को पाता हुआ अत्यन्त खेद को पाता है। धनरूपी प्राण बाहर ही हैं जैसे वहाँ किसी समय बबूल आने से आँखों में धूल भर जाने से अन्धे तुल्य हो जाता है। इसी प्रकार जब स्त्री को देख कर कुछ मर्यादा नहीं सूझती और सोचता है कि यह विषय भोग मिथ्या है और फिर भूलकर मृग तृष्णा के समान उन्हीं विषयों के पीछे दौड़ता है। हमने कहा कि उल्लू आदि पक्षियों के भयावने शब्दों को सुन कर डरता है, सो यह इस प्रकार जानो कि अपने कर्मों के प्रति फल को अर्थात शत्रु अथवा राज दूतों आदि से क्रूर बचनों को मुख सामने हो या पीठ पीछे सुनकर दुखी होता हैं । कभी अनेक प्रकार के रोगो में पड़, कर भयभीत हो रोगों को दूर करने का प्रयत्न करता है, और दूर न होने पर दुखी होकर बैठा रहता है । इस प्रकार इस जगत रूपी मार्ग में नाना प्रकार के क्लेशों में पड़कर मरे को छोड़ कर और नये पैदा होने वाले को साथ लेकर फिर इसी संसार रूपी मार्ग पर चलने लगता है । सोच करता है, और मोह करता है, डरता है, विवाद करता है, प्रसन्न होता है, चिल्लाता है, गान करता है कमर कसता है, परन्तु साधु पुरुष के बिना दूसरा कोई मनुष्य आज तक भी पीछा नहीं छुड़ा पाता है । कारण कि योग का आश्रय नहीं लेता है, जिसका अभ्यास योग शास्त्र के जानने वाले ही जानते हैं । जो सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने वाले हैं वे भी ममता के कारण अन्त में इसी पृथ्वी में देह को मिलाकर फिर जन्म ले संसार चक्र में चक्कर खाते हैं । जब कि कभी-कभी कोई-कोई जीव कर्म रूप बेल को पकड़ कर कुछ समय को बचा रहता है, परन्तु फिर उस बेल के टूटते ही संसार मार्ग में चक्कर लगाने लग जाता है । हे राजन! जो मैंने यह कहा कि एक-एक कर सभी बन्जारे उस अन्ध कूप में पड़ते हैं, और लता को पकड़कर लटकते रहते हैं । जब कि कूप में सर्प बैठा रहता है, तब भी वह एक बूंद मधु के फेर में पड़ जाता है, सो यह जानो कि कूए में जो सर्प कहा है वह काल हैं और जिसको पकड़ क
Thu, 01 Apr 2021 - 06min - 3 - श्रीमद भागवद पुराणMon, 04 Jan 2021 - 1h 52min
- 2 - आचार्य कुलम। डॉक्टर महावीर द्वारा विद्या अध्यनThu, 24 Dec 2020 - 25min
- 1 - Acharyakulam ved vani rahashya. By Dr. Mahavir
श्रीमद भागवद पुराण * दसवां अध्याय* [स्कंध २] (श्री शुकदेवजी द्वारा भागवतारम्भ) दोहा-किये परीक्षत प्रश्न जो उत्तर शुक दिये ताय । सो दसवें अध्याय में बरयों गाथा गाय ।। ।।स्कंध २ का आखिरी अध्याय।।  हरि देह निर्माण श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत! इस महापुराण श्रीद्भागवत में दश लक्षण हैं सो इस प्रकार कहे हैं-सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, अति, मन्वन्तर, ईशानु कथा, निरोध, मुक्ति, और आश्रय। अब सर्गादिकों के प्रत्येक का लक्षण कहते हैं-हे राजन् ! पृथ्वी, जल, वायु आकाश में पंच महाभूत और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच पंचन्मात्रा तथा नाक, कान, जिभ्या, त्वचा, नेत्र यह पांच ज्ञानेन्द्रिय और चरण, हाथ, वाणी, लिङ्ग, गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिय तथा अहंकार महा तत्व इन सब गुणों के परिणाम से अर्थात विराट भगवान द्वारा (से) उत्पन्न जो मूल सृष्टि है उसे स्वर्ग कहते हैं। और जो स्थावर जंगम रूप बृह्माजी से हुई उसे विसर्ग कहते हैं। ईश्वर द्वारा रचित मर्यादाओं का पालन करना स्थान कहलाता है। अपने भक्त पर की जाने वाली अनुग्रह को पोष्णा कहते हैं। मन्वन्तर श्रेष्ठ धर्म को कहते है, अति कर्म वासना को कहते हैं, ईशानु कथा ईश्वर के अवतारों, चरित्रों और अनेक आख्यानों से बढ़ी हुई भगवद्भक्तों की कथाओं को कहते हैं। निरोध उसे कहते हैं जिससे जीवात्मा की उपाधियों करके हरि की योग निद्रा के पीछे हरि भगवान में लय हो जाये। और अन्यथा रूप को त्याग कर अपने स्वरूप में स्थित होने को मुक्ति कहते हैं। जिससे इस जगत की उत्पत्ति पालन तथा संहार होता है उसे परमात्मा श्री हरि कहते हैं। उसी का नाम आश्रय कहते हैं। हे राजन् ! इस दशवी कथा को समझने के हेतु ही ये अन्य नौ कथायें हैं जो यह अध्यात्मिक पुरुष है वही आधि दैविक है और जो इन दोनों में बँटा हुआ है वह आधि भौतिक है इन तीनों की परस्पर सापेक्ष्य सिद्धि है यह एक के अभाव में एक को प्राप्त नहीं होते हैं। अब सृष्टि प्रकार कहते हैं-जिस समय अण्ड को भेदन करके विराट पुरुष निकले उस समय उन्हें अपने लिये निवास की इच्छा प्रकट हुई। ईश्वर स्वयं पवित्र है इस कारण उसने अपने लिये पवित्र जल की रचना की उन्होंने तब उस अपने द्वारा निर्मित जल में सहस्र वर्ष पर्यन्त निवास किया इसी कारण विराट पुरुष का नाम नारायण पड़ा। हजार साल निवास करने के पश्चात श्री नारायण ने आप अपने अनेक रूप होने को इच्छा प्रगट को तब माया ने हिरन्य मय बीज के तीन भाग किये जो आधिदेव, अध्यात्म और अधिभूत हुये तब नारायण के अतः करण में होने वाले आकाश से ओम सहित वल उत्पन्न हुआ तत्पश्चात सूक्षात्मा नामक मुख्य प्राण उत्पन्न हुआ फिर सबको चलाने वाले प्राण से विराट प्रभु को भूख प्यस उत्पन्न हुई और यह मुख उत्पन्न हुआ, मुख से तालु हुआ, उसमे जिव्हा उत्पन्न हुई। फिर ऐसे अनेक रस उत्पन्न हुये जो जिव्हा से जाने जाते हैं। फिर बोलने की इच्छा हुई तब अग्निदेव वाली वाणी प्राप्त जिससे सुन्दर शब्द उत्पन्न हुआ परन्तु बहुत काल तक जल में बचन की रुकावट हुई। जब भीतर प्राण वायु धुकधुकाने लगी तो नासिका बनी फिर वायु, सुगन्ध, घाणोन्द्रिय सूघने के लिये उत्पन्न हुई। जब देखने की इच्छा तीब्र हुई तब दो नेत्र उत्पन्न हुये फिर जब श्रवण करने की इच्छा हुई तो दो कान उत्पन्न हुये जब वस्तुओं की कोमलता, हल्कापन, भारापन जानने को इच्छा हुई तो त्वचा उत्पन्न हुई। जिससे रोम आदि प्रगट हुये। फिर अनेक कर्मों के करने को तथा उठाने धरने की इच्छा हुई तब दो हाथ उत्पन्न हुये। फिर जब चलने की इच्छा हुई तो दो चरण ऊत्पन्न हुये। फिर स्वर्ग आदि को इच्छा हुई तो काम प्रिय लिङ्ग उत्पन्न हुआ, फिर जब भोजनोपरान्त मल त्याग करने को इच्छा हुई तो तब गुदा उत्पन्न हुई। जब भगवान विराट रूप ने अपनी देह को त्याग दूसरी देह धारण करने को इच्छा प्रकट की तो नाभि उत्पन्न हुई, जब अन्न जल ग्रहण करने की इच्छा हुई तब कोख आँत इत्यादि बनी, जब अपनी माया को चिन्त वन करने को इच्छा हुई तो तब हृदय बना उस हृदय में मन आदि अभिलाषा संकल्प आदि का सृजन हुआ। और त्वचा, चर्म, माँस, रुधिर, मेद, मज्जा, अस्थि ये सात धातु उत्पन्न हुई। हे राजन ! यह भगवान विराट का तुम्हारे सामने हमने स्थूल शरीर कहा जो पृथ्वी आदि आवरणों से लपेटा हुआ है। भगवान का रूप इससे परे अति सूक्ष्म, अव्यक्त विशेषण रहित आदि मध्य अन्त रहित, नित्य वाणी और मन से परे ऐसा भगवान का सूक्ष्म रूप है। सो हे राजा परीक्षत ! हमने तुमसे भगवान के स्थल और सक्ष्म दोनों स्वरूप कहे। ॥ इति श्रीमद्भागवत कथा द्वितीय स्कंध समाप्तम ।। https://shrimadbhagwatpuranpdf.blogspot.com/
Tue, 22 Dec 2020 - 46min
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